रात है लोग घर में बैठे हैं
दफ़्तर-आलूदा ओ दुकान-ज़दा
Anwar Masood
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
Mir Taqi Mir
Gulzar
Allama Iqbal
Javed Akhtar
Parveen Shakir
Rahat Indori
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ज़िक्र हम से बे-तलब का क्या तलबगारी के दिन
नज़र आसूदा-काम-ए-रौशनी है
दिखाई देने के और दिखाई न देने के दरमियान सा कुछ
ख़याल-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब
वो तो ऐसा भी है वैसा भी है कैसा है मगर?
फीकी ज़र्द दोपहर
गोशे
यूँ भी दिल अहबाब के हम ने गाहे गाहे रक्खे थे
ख़ुद को क्यूँ जिस्म का ज़िंदानी करें
जैसे कोई दायरा तकमील पर है
मिरी निगाहों पे जिस ने शाम ओ सहर की रानाइयाँ लिखी हैं
बहुत मलूल बड़े शादमाँ गए हुए हैं