बाम-ओ-दर की रौशनी फिर क्यूँ बुलाती है मुझे
मैं निकल आया था घर से इक शब-ए-तारीक में
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ख़याल-ए-ख़ातिर-ए-अहबाब
नज़र आसूदा-काम-ए-रौशनी है
बंद फ़सीलें शहर की तोड़ें ज़ात की गिरहें खोलें
जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया
ईद उस परी-वश की
हद-ए-उफ़ुक़ पर सारा कुछ वीरान उभरता आता है
बहुत मलूल बड़े शादमाँ गए हुए हैं
वो तो ऐसा भी है वैसा भी है कैसा है मगर?
अज़दवाजी ज़िंदगी भी और तिजारत भी अदब भी
शिरकत
मुफ़्लिसी भूक को शहवत से मिला देती है
मुतज़ाद ज़ाविए