जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया
जिस घड़ी फ़त्ह का ऐलान हुआ हार गया
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ज़िक्र हम से बे-तलब का क्या तलबगारी के दिन
तब-ए-हस्सास मिरी ख़ार हुई जाती है
खुली जब आँख तो देखा कि दुनिया सर पे रक्खी है
बोल थे दिवानों के जिन से होश वालों ने
मैं ने अपनी रूह को अपने तन से अलग कर रक्खा है
बयाज़ पर सँभल सके न तजरबे
ज़र्फ़
ना-काम कोशिश
मौत से आगे सोच के आना फिर जी लेना
जैसे कोई दायरा तकमील पर है
जब तक शब्द के दीप जलेंगे सब आएँगे तब तक यार
रात है लोग घर में बैठे हैं