ज़माने सब्ज़ ओ सुर्ख़ ओ ज़र्द गुज़रे
ज़मीं लेकिन वही ख़ाकिस्तरी है
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दम-ए-वापसीं
इंतिज़ार बाक़ी है
तब-ए-हस्सास मिरी ख़ार हुई जाती है
हम अपने ज़ख़्म कुरेदते हैं वो ज़ख़्म पराए धोते थे
ज़ियारत
मेरी आँखों से गुज़र कर दिल ओ जाँ में आना
ज़िक्र हम से बे-तलब का क्या तलबगारी के दिन
आवाज़ के मोती
जो कुछ भी ये जहाँ की ज़माने की घर की है
घर वाले मुझे घर पर देख के ख़ुश हैं और वो क्या जानें
खिले हैं फूल की सूरत तिरे विसाल के दिन
इक ईमा इक इशारा मर रहा है