माज़ी के रेग-ज़ार पे रखना सँभल के पाँव
बच्चों का इस में कोई घरौंदा बना न हो
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दुआ को हाथ मिरा जब कभी उठा होगा
मैं भी इस सफ़्हा-ए-हस्ती पे उभर सकता हूँ
मिरे ख़ुलूस पे शक की तो कोई वज्ह नहीं
होंकते दश्त में इक ग़म का समुंदर देखो
सज्दे के हर निशाँ पे है ख़ूँ सा जमा हुआ
ये हाथ राख में ख़्वाबों की डालते तो हो
खड़ा हुआ हूँ सर-ए-राह मुंतज़िर कब से
तुम्हारे संग-ए-तग़ाफ़ुल का क्यूँ करें शिकवा
बहार बन के ख़िज़ाँ को न यूँ दिलासा दे
हर इंसाँ अपने होने की सज़ा है
ग़ुबार-ए-दर्द से सारा बदन अटा निकला