जब कि पहरा है तीं लिबास ज़र्रीं
इक क़द-आदम हुई है आग बुलंद
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जने देखा सो ही बौरा हुआ है
मस्त अँखियाँ का देख दुम्बाला
क्यूँके करे न शहर को रो रो उजाड़ चश्म
जिगर में ल'अल के आतिश पड़ी है
ख़म-ए-मेहराब-ए-अबरुवाँ के बीच
इश्क़ का तिफ़्ल गिर ज़मीं ऊपर
मुझ सीं और दिलरुबा सीं है अन-बन
कब करे क़स्द यार आवन का
जब करें मुझ तिरे का ख़्याल अँखियाँ
ख़ुश-क़दाँ जब ख़िराम करते हैं
तेरा ही मैं गदा हूँ मेरा तू शाह बस है
कमाँ अबरू निपट शह-ज़ोर हैगा