इश्क़ का तिफ़्ल गिर ज़मीं ऊपर
खेल सीखा है ख़ाक-बाज़ी का
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ख़म-ए-मेहराब-ए-अबरुवाँ के बीच
अगर वो गुल-बदन दरिया नहाने बे-हिजाब आवे
जने देखा सो ही बौरा हुआ है
गल को शर्मिंदा कर ऐ शोख़ गुलिस्तान में आ
सुनाया यार नीं आ कर दो तारा
कब करे क़स्द यार आवन का
जब करें मुझ तिरे का ख़्याल अँखियाँ
मुझ सीं और दिलरुबा सीं है अन-बन
कमाँ अबरू निपट शह-ज़ोर हैगा
जिगर में ल'अल के आतिश पड़ी है
मस्त अँखियाँ का देख दुम्बाला
इश्क़ है इश्क़-ए-पाक-बाज़ी का