कमाँ अबरू निपट शह-ज़ोर हैगा
कि शाख़-ए-आश्नाई तोड़ डाली
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इश्क़ के फ़न नीं हूँ मैं अवधूत
गल को शर्मिंदा कर ऐ शोख़ गुलिस्तान में आ
ख़ुश-क़दाँ जब ख़िराम करते हैं
मस्त अँखियाँ का देख दुम्बाला
अगर वो गुल-बदन दरिया नहाने बे-हिजाब आवे
मिरा दिल मुब्तला है झाँवली का
तेरा ही मैं गदा हूँ मेरा तू शाह बस है
ख़म-ए-मेहराब-ए-अबरुवाँ के बीच
रक़ीबान-ए-सियह-रू शहर-ए-देहली के मुसाहिब हैं
जिगर में ल'अल के आतिश पड़ी है
मुझ सीं और दिलरुबा सीं है अन-बन
प्यासा मत जला साक़ी मुझे गर्मी सीं हिज्राँ की