जो तूँ मुर्ग़ा नहीं है ऐ ज़ाहिद
क्यूँ सहर गाह दे है उठ के बाँग
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जने देखा सो ही बौरा हुआ है
इश्क़ का तिफ़्ल गिर ज़मीं ऊपर
जब कि पहरा है तीं लिबास ज़र्रीं
जिगर में ल'अल के आतिश पड़ी है
प्यासा मत जला साक़ी मुझे गर्मी सीं हिज्राँ की
अगर नहीं क़स्द ऐ ज़ालिम मिरे दिल के सताने का
कमाँ अबरू निपट शह-ज़ोर हैगा
न होवे क्यूँ के गर्दूं पे सदा दिल की बुलंद अपनी
गुदाज़-ए-आतिश-ए-ग़म सीं हुई हैं बावली अँखियाँ
इश्क़ के फ़न नीं हूँ मैं अवधूत
मुझ सीं और दिलरुबा सीं है अन-बन