हर इक इंसान के आमाल भी यकसाँ नहीं होते
कोई घर तोड़ देता है कोई तामीर करता है
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Jaun Eliya
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Gulzar
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बाग़बाँ जश्न-ए-बहाराँ नहीं होने देते
कहीं भी राह-नुमा अब नज़र नहीं आता
ग़म से निस्बत है जिन्हें ज़ब्त-ए-अलम करते हैं
नई हवा में कोई रंग-ए-काएनात में गुम
वसवसे दिल में न रख ख़ौफ़-ए-रसन ले के न चल
नुमायाँ जब वो अपने ज़ेहन की तस्वीर करता है