क्या सबब तेरे बदन के गर्म होने का सजन
आशिक़ों में कौन जलता था गले किस के लगा
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है हमन का शाम कोई ले जा
ऐ सर्द-मेहर तुझ सीं ख़ूबाँ जहाँ के काँपे
मिल गया था बाग़ में माशूक़ इक नक-दार सा
जलता है अब तलक तिरी ज़ुल्फ़ों के रश्क से
शब-ए-सियाह हुआ रोज़ ऐ सजन तुझ बिन
सैर-ए-बहार-ए-हुस्न ही अँखियों का काम जान
रता है अबरुवाँ पर हाथ अक्सर लावबाली का
क्यूँ मलामत इस क़दर करते हो बे-हासिल है ये
तुम्हारी जब सीं आई हैं सजन दुखने को लाल अँखियाँ
दाग़ सीं क्यूँ न दिल उजाला हो
नाज़नीं जब ख़िराम करते हैं
तीरा-रंगों के हुआ हक़ में ये तप करना दवा