तकमील-ए-आरज़ू से भी होता है ग़म कभी
ऐसी दुआ न माँग जिसे बद-दुआ कहें
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मर्ज़ी ख़ुदा की क्या है कोई जानता नहीं
इश्क़ की सई-ए-बद-अंजाम से डर भी न सके
फिर खुले इब्तिदा-ए-इश्क़ के बाब
माना अपनी जान को वो भी दिल का रोग लगाएँगे
इश्क़ के मज़मूँ थे जिन में वो रिसाले क्या हुए
सब की आँखों में जो समाया था
'सहर' अब होगा मेरा ज़िक्र भी रौशन-दिमाग़ों में
बे-रब्ती-ए-हयात का मंज़र भी देख ले
गोया चमन चमन न था
रह-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा भी कूचा-ओ-बाज़ार हो जैसे
हमें तन्हाइयों में यूँ तो क्या क्या याद आता है