बे-रब्ती-ए-हयात का मंज़र भी देख ले
थोड़ा सा अपनी ज़ात के बाहर भी देख ले
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ज़मीर-ए-नौ-ए-इंसानी के दिन हैं
फूलों की तलब में थोड़ा सा आज़ार नहीं तो कुछ भी नहीं
माना अपनी जान को वो भी दिल का रोग लगाएँगे
बर्क़ से खेलने तूफ़ान पे हँसने वाले
हमें तन्हाइयों में यूँ तो क्या क्या याद आता है
चाँद का रक़्स सितारों का फ़ुसूँ माँगती है
जब ये दावे थे कि हर दुख का मुदावा हो गए
इश्क़ की सई-ए-बद-अंजाम से डर भी न सके
बला-ए-जाँ थी जो बज़्म-ए-तमाशा छोड़ दी मैं ने
हिन्दू से पूछिए न मुसलमाँ से पूछिए
बस्तियाँ लुटती हैं ख़्वाबों के नगर जलते हैं