हिन्दू से पूछिए न मुसलमाँ से पूछिए
इंसानियत का ग़म किसी इंसाँ से पूछिए
Jaun Eliya
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Parveen Shakir
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तकमील-ए-आरज़ू से भी होता है ग़म कभी
सब की आँखों में जो समाया था
ग़म-ए-हबीब नहीं कुछ ग़म-ए-जहाँ से अलग
ज़मीर-ए-नौ-ए-इंसानी के दिन हैं
मर्ज़ी ख़ुदा की क्या है कोई जानता नहीं
चाँद का रक़्स सितारों का फ़ुसूँ माँगती है
ख़्वाबों का नश्शा है न तमन्ना का सिलसिला
काली ग़ज़ल सुनो न सुहानी ग़ज़ल सुनो
अब तक इलाज-ए-रंजिश-ए-बे-जा न कर सके
गोया चमन चमन न था
'सहर' अब होगा मेरा ज़िक्र भी रौशन-दिमाग़ों में