होश-मंदी से जहाँ बात न बनती हो 'सहर'
काम ऐसे में बहुत बे-ख़बरी आती है
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सब इक न इक सराब के चक्कर में रह गए
बर्क़ से खेलने तूफ़ान पे हँसने वाले
इश्क़ के मज़मूँ थे जिन में वो रिसाले क्या हुए
हिन्दू से पूछिए न मुसलमाँ से पूछिए
हमें तन्हाइयों में यूँ तो क्या क्या याद आता है
रह-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा भी कूचा-ओ-बाज़ार हो जैसे
फूलों की तलब में थोड़ा सा आज़ार नहीं तो कुछ भी नहीं
गोया चमन चमन न था
मर्ज़ी ख़ुदा की क्या है कोई जानता नहीं
ज़िंदगी ख़ाक-बसर शोला-ब-जाँ आज भी है
काम हर ज़ख़्म ने मरहम का किया हो जैसे