बर्क़ से खेलने तूफ़ान पे हँसने वाले
ऐसे डूबे तिरे ग़म में कि उभर भी न सके
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होश-मंदी से जहाँ बात न बनती हो 'सहर'
अब तक इलाज-ए-रंजिश-ए-बे-जा न कर सके
ज़िंदगी ख़ाक-बसर शोला-ब-जाँ आज भी है
ख़्वाबों का नश्शा है न तमन्ना का सिलसिला
ज़मीर-ए-नौ-ए-इंसानी के दिन हैं
इश्क़ के मज़मूँ थे जिन में वो रिसाले क्या हुए
ग़म-ए-हबीब नहीं कुछ ग़म-ए-जहाँ से अलग
वक़्त ग़मनाक सवालों में न बर्बाद करें
खो के देखा था पा के देख लिया
इश्क़ की सई-ए-बद-अंजाम से डर भी न सके
काली ग़ज़ल सुनो न सुहानी ग़ज़ल सुनो
हमें तन्हाइयों में यूँ तो क्या क्या याद आता है