फिर खुले इब्तिदा-ए-इश्क़ के बाब
उस ने फिर मुस्कुरा के देख लिया
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खो के देखा था पा के देख लिया
माना अपनी जान को वो भी दिल का रोग लगाएँगे
बस्तियाँ लुटती हैं ख़्वाबों के नगर जलते हैं
फूलों की तलब में थोड़ा सा आज़ार नहीं तो कुछ भी नहीं
होश-मंदी से जहाँ बात न बनती हो 'सहर'
अब तक इलाज-ए-रंजिश-ए-बे-जा न कर सके
ज़िंदगी ख़ाक-बसर शोला-ब-जाँ आज भी है
इश्क़ के मज़मूँ थे जिन में वो रिसाले क्या हुए
बे-रब्ती-ए-हयात का मंज़र भी देख ले
ज़मीर-ए-नौ-ए-इंसानी के दिन हैं
इश्क़ को हुस्न के अतवार से क्या निस्बत है