चीख़ उठता है दफ़अतन किरदार
जब कोई शख़्स बद-गुमाँ हो जाए
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किसी की शख़्सियत मजरूह कर दी
फ़ासले ये सिमट नहीं सकते
अब किसी ख़्वाब की ताबीर नहीं चाहता मैं
जितनी हम चाहते थे उतनी मोहब्बत नहीं दी
लगता है कि इस दिल में कोई क़ैद है 'अश्फ़ाक़'
वो मिरी जुराअत-ए-कमयाब से ना-वाक़िफ़ हैं
ये अलग बात कि तज्दीद-ए-तअल्लुक़ न हुआ
मेरी कम-गोई पे जो तंज़ किया करते हैं
तुम जो आ जाओ ग़म धुआँ हो जाए
बहुत बईद न था मसअलों का हल होना