अब किसी ख़्वाब की ताबीर नहीं चाहता मैं
कोई सूरत पस-ए-तस्वीर नहीं चाहता मैं
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अना मुँह आँसुओं से धो रही है
मेरी कम-गोई पे जो तंज़ किया करते हैं
तर्क-ए-उल्फ़त के ब'अद भी 'अश्फ़ाक़'
चीख़ उठता है दफ़अतन किरदार
फ़ासले ये सिमट नहीं सकते
बिकता रहता सर-ए-बाज़ार कई क़िस्तों में
अजब ठहराव पैदा हो रहा है रोज़ ओ शब में
ये अलग बात कि तज्दीद-ए-तअल्लुक़ न हुआ
गए दिनों की रक़ाबत को वो भुला न सके
तुम जो आ जाओ ग़म धुआँ हो जाए
जितनी हम चाहते थे उतनी मोहब्बत नहीं दी