अजब ठहराव पैदा हो रहा है रोज़ ओ शब में
मिरी वहशत कोई ताज़ा अज़िय्यत चाहती है
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जितनी हम चाहते थे उतनी मोहब्बत नहीं दी
अब किसी ख़्वाब की ताबीर नहीं चाहता मैं
बहुत बईद न था मसअलों का हल होना
तुम जो आ जाओ ग़म धुआँ हो जाए
सब जल गया जलते हुए ख़्वाबों के असर से
दे के वो सारे इख़्तियार मुझे
वो मिरी जुराअत-ए-कमयाब से ना-वाक़िफ़ हैं
तर्क-ए-उल्फ़त के ब'अद भी 'अश्फ़ाक़'
मेरी कम-गोई पे जो तंज़ किया करते हैं
गए दिनों की रक़ाबत को वो भुला न सके
चीख़ उठता है दफ़अतन किरदार