तर्क-ए-उल्फ़त के ब'अद भी 'अश्फ़ाक़'
तेरा रहता है इंतिज़ार मुझे
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लगता है कि इस दिल में कोई क़ैद है 'अश्फ़ाक़'
फ़ासले ये सिमट नहीं सकते
सब जल गया जलते हुए ख़्वाबों के असर से
बिकता रहता सर-ए-बाज़ार कई क़िस्तों में
चीख़ उठता है दफ़अतन किरदार
जितनी हम चाहते थे उतनी मोहब्बत नहीं दी
किसी की शख़्सियत मजरूह कर दी
अजब ठहराव पैदा हो रहा है रोज़ ओ शब में
ज़मीं वालों की बस्ती में सुकूनत चाहती है
ये अलग बात कि तज्दीद-ए-तअल्लुक़ न हुआ
हम तिरे इश्क़ में कुछ ऐसे ठिकाने लग जाएँ