बहुत बईद न था मसअलों का हल होना
अना के पाँव से ज़ंजीर हम हटा न सके
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अना मुँह आँसुओं से धो रही है
ज़मीं वालों की बस्ती में सुकूनत चाहती है
चीख़ उठता है दफ़अतन किरदार
मेरी कम-गोई पे जो तंज़ किया करते हैं
जितनी हम चाहते थे उतनी मोहब्बत नहीं दी
तर्क-ए-उल्फ़त के ब'अद भी 'अश्फ़ाक़'
फ़ासले ये सिमट नहीं सकते
दे के वो सारे इख़्तियार मुझे
गए दिनों की रक़ाबत को वो भुला न सके
बिकता रहता सर-ए-बाज़ार कई क़िस्तों में
वो मिरी जुराअत-ए-कमयाब से ना-वाक़िफ़ हैं