दिल-ए-बेताब के हमराह सफ़र में रहना
हम ने देखा ही नहीं चैन से घर में रहना
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ये एक लम्हे की दूरी बहुत है मेरे लिए
एक तअस्सुर
बे-ज़ारी की आख़िरी साअत
निहाल-ए-वस्ल नहीं संग-बार करने को
यही दिल जो इक बूँद है बहर-ए-ग़म की
हमारी हम-नफ़सी को भी क्या दवाम हुआ
तिरी दुनिया में ऐ दिल हम भी इक गोशे में रहते हैं
कितने में बनती है मोहर ऐसी
आँसू की तरह दीदा-ए-पुर-आब में रहना
मगर वो दिया ही नहीं मान कर के
हुस्न नजात-दहिन्दा है