दुनिया मिरे पड़ोस में आबाद है मगर
मेरी दुआ-सलाम नहीं उस ज़लील से
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दिल आईना है मगर इक निगाह करने को
अच्छी गुज़र रही है दिल-ए-ख़ुद-कफ़ील से
सबा देख इक दिन इधर आन कर के
गए थे वहाँ जी में क्या ठान कर के
ये एक लम्हे की दूरी बहुत है मेरे लिए
दिल से बाहर आज तक हम ने क़दम रक्खा नहीं
घर और बयाबाँ में कोई फ़र्क़ नहीं है
दिल-ए-बेताब के हमराह सफ़र में रहना
हमारी हम-नफ़सी को भी क्या दवाम हुआ
तिरी दुनिया में ऐ दिल हम भी इक गोशे में रहते हैं
किसी का ध्यान मह-ए-नीम-माह में आया
उस के लहजे का वो उतार चढ़ाओ