कई बरस से है वीरान मर्ग़ज़ार-ए-शबाब
अब इल्तिफ़ात के बादल बरस रहे हैं क्यूँ?
ये बूंदियाँ, ये फुवारें, ये रस-भरे झोंके
तवक़्क़ुआत की नाशों को डस रहे हैं क्यूँ?
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बूढ़े माँ बाप बिलकते हुए घर को पलटे
बाजरे की फ़स्ल से चिड़ियाँ उड़ाने के लिए
पत्थर
अपने माहौल से थे क़ैस के रिश्ते क्या क्या
दिलों से आरज़ू-ए-उम्र-ए-जावेदाँ न गई
एक नज़्म
यूँ बे-कार न बैठो दिन भर यूँ पैहम आँसू न बहाओ
अपनी आवाज़ की लर्ज़िश पे तो क़ाबू पा लो
मुझे तलाश करो
खड़खड़ाती डोल वो धम से कुएँ में गिर गई
इक उम्र के ब'अद मुस्कुरा कर
तर्क-ए-दरयूज़ा