खड़खड़ाती डोल वो धम से कुएँ में गिर गई
दम-ब-ख़ुद पनहारियाँ कंगन घुमाती रह गईं
वो कुएँ में एक चरवाहा उतरने को बढ़ा
वो सुबूही की निगाहें मुस्कुराती रह गईं
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तिरी ज़ुल्फ़ें हैं कि सावन की घटा छाई है
इंफ़िसाल
मैं किसी शख़्स से बेज़ार नहीं हो सकता
रेस्तोराँ
दावर-ए-हश्र मुझे तेरी क़सम
मुझ को दुश्मन के इरादों पे भी प्यार आता है
इक उम्र के ब'अद मुस्कुरा कर
आँसुओं में भिगो के आँखों को
बीसवीं सदी का इंसान
मुझे मंज़ूर गर तर्क-ए-तअल्लुक़ है रज़ा तेरी
शुऊर में कभी एहसास में बसाऊँ उसे
जो लोग दुश्मन-ए-जाँ थे वही सहारे थे