दावर-ए-हश्र मुझे तेरी क़सम
उम्र भर में ने इबादत की है
तू मिरा नामा-ए-आमाल तो देख
मैं ने इंसाँ से मोहब्बत की है
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बलाग़त का अलमिया
तुम मिरे इरादों के डोलते सितारों को
हर लम्हा अगर गुरेज़-पा है
वो दूर झील के पानी में तैरता है चाँद
कई बरस से है वीरान मर्ग़ज़ार-ए-शबाब
मैं ने इस दश्त की वुसअत में शबिस्ताँ पाए
वक़्त
रुख़्सार हैं या अक्स है बर्ग-ए-गुल-ए-तर का
फ़ासले के मअ'नी का क्यूँ फ़रेब खाते हो
मरूँ तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊँ
वो तार के इक खम्बे पे बैठी है अबाबील
तंग आ जाते हैं दरिया जो कुहिस्तानों में