रुख़्सार हैं या अक्स है बर्ग-ए-गुल-ए-तर का
चाँदी का ये झूमर है कि तारा है सहर का
ये आप हैं या शोबदा-ए-ख़्वाब-ए-जवानी
ये रात हक़ीक़त है कि धोका है नज़र का
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गोरे हाथों में ये धानी चूड़ियों की आन-बान
वक़्फ़ा
पत्थर
लरज़ते साए
तू जो बदला तो ज़माना भी बदल जाएगा
आख़िर दुआ करें भी तो किस मुद्दआ के साथ
मैं ने इस दश्त की वुसअत में शबिस्ताँ पाए
सूरज को निकलना है सो निकलेगा दोबारा
कभी न पलटेगी बीती हुई घड़ी लेकिन
क़यामत
जब भी आँखों में तिरी रुख़्सत का मंज़र आ गया
हमेशा ज़ुल्म के मंज़र हमें दिखाए गए