मैं ने इस दश्त की वुसअत में शबिस्ताँ पाए
इस के टीलों पे मुझे क़स्र नज़र आए हैं
इन बबूलों में किसी साज़ के पर्दे लरज़े
इन खुजूरों पे मिरे राज़ उभर आए हैं
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जो लोग दुश्मन-ए-जाँ थे वही सहारे थे
बात कहने का जो ढब हो तो हज़ारों बातें
ज़िंदगी शम्अ की मानिंद जलाता हूँ 'नदीम'
कई बरस से है वीरान मर्ग़ज़ार-ए-शबाब
इक सफ़ीना है तिरी याद अगर
मुमकिन है फ़ज़ाओं से ख़लाओं के जहाँ तक
हर लम्हा अगर गुरेज़-पा है
गिरती हुई बूँदें हैं कि पारे की लकीरें
हिकमत-ए-अहल-ए-मदरसा का ग़ुरूर
पस-ए-आईना
यूँ तो पहने हुए पैराहन-ए-ख़ार आता हूँ
वो पानी भरने चली इक जवान पंसारी