मुमकिन है फ़ज़ाओं से ख़लाओं के जहाँ तक
जो कुछ भी हो आदम का निशान-ए-कफ़-ए-पा हो
मुमकिन है कि जन्नत की बुलंदी से उतर कर
इंसान की अज़्मत में इज़ाफ़ा ही हुआ हो
Allama Iqbal
Habib Jalib
Parveen Shakir
Gulzar
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Faiz Ahmad Faiz
Javed Akhtar
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पा कर भी तो नींद उड़ गई थी
जब तिरा हुक्म मिला तर्क मोहब्बत कर दी
रुख़्सार हैं या अक्स है बर्ग-ए-गुल-ए-तर का
अजब तज़ाद में काटा है ज़िंदगी का सफ़र
फ़रेब खाने को पेशा बना लिया हम ने
वो तार के इक खम्बे पे बैठी है अबाबील
लबों पे नर्म तबस्सुम रचा के धुल जाएँ
यूँ तो पहने हुए पैराहन-ए-ख़ार आता हूँ
अजीब रंग तिरे हुस्न का लगाव में था
तुझ से किस तरह मैं इज़हार-ए-तमन्ना करता
ईद का दिन है फ़ज़ा में गूँजते हैं क़हक़हे
तदफ़ीन