तुझ से किस तरह मैं इज़हार-ए-तमन्ना करता
लफ़्ज़ सूझा तो मआ'नी ने बग़ावत कर दी
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खड़खड़ाती डोल वो धम से कुएँ में गिर गई
सुब्ह होते ही निकल आते हैं बाज़ार में लोग
रेश-ए-गुल को रग-ए-संग बनाने वालो
सफ़र और हम-सफ़र
पौ फटे रेंगते झरने पे ये कौन आया है
मैं ने समझा था कि लौट आते हैं जाने वाले
तर्क-ए-दरयूज़ा
लब-ए-ख़ामोश से इफ़्शा होगा
अजब सुरूर मिला है मुझे दुआ कर के
तिमतिमाते हैं सुलगते हुए रुख़्सार तिरे
कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा
मैं वो शाएर हूँ जो शाहों का सना-ख़्वाँ न हुआ