तिमतिमाते हैं सुलगते हुए रुख़्सार तिरे
आँख भर कर कोई देखेगा तो जल जाएगा
इतना सय्याल है ये पल कि गुमाँ होता है
मैं तिरे जिस्म को छू लूँ तो पिघल जाएगा
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क़रिया-ए-मोहब्बत
तर्क-ए-दरयूज़ा
तदफ़ीन
आँसुओं में भिगो के आँखों को
मैं तेरे कहे से चुप हूँ लेकिन
बरस के छट गए बादल हवाएँ गाती हैं
क़लम दिल में डुबोया जा रहा है
'नदीम' जो भी मुलाक़ात थी अधूरी थी
तू बिगड़ता भी है ख़ास अपने ही अंदाज़ के साथ
ये भी क्या चाल है हर गाम पे महशर का गुमाँ
मुझे तलाश करो
अपनी आवाज़ की लर्ज़िश पे तो क़ाबू पा लो