उदास चाँद ने बदली की आड़ में हो कर
किनारे मल्गजे बादल के कर दिए रौशन
शब-ए-फ़िराक़ में जैसे तसव्वुर-ए-रुख़-ए-दोस्त
दिल-ए-हज़ीं के अँधेरे में रौशनी की किरन
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शुऊर में कभी एहसास में बसाऊँ उसे
जो लोग दुश्मन-ए-जाँ थे वही सहारे थे
पाबंदी
जी चाहता है फ़लक पे जाऊँ
रूह लबों तक आ कर सोचे
जन्नत मिली झूटों को अगर झूट के बदले
आज पनघट पे ये गाता हुआ कौन आ निकला
एक दरख़्वास्त
रेस्तोराँ
जंगल की आग
शाम को सुब्ह-ए-चमन याद आई
लरज़ते साए