'नदीम' जो भी मुलाक़ात थी अधूरी थी
कि एक चेहरे के पीछे हज़ार चेहरे थे
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वो पानी भरने चली इक जवान पंसारी
मैं किसी शख़्स से बेज़ार नहीं हो सकता
दिलों से आरज़ू-ए-उम्र-ए-जावेदाँ न गई
मुझ को दुश्मन के इरादों पे भी प्यार आता है
रूह लबों तक आ कर सोचे
होता नहीं ज़ौक़-ए-ज़िंदगी कम
लज़्ज़त-ए-आगही
लरज़ते साए
दावर-ए-हश्र मुझे तेरी क़सम
फ़रेब खाने को पेशा बना लिया हम ने
उन का आना हश्र से कुछ कम न था
लबों पे नर्म तबस्सुम रचा के धुल जाएँ