उन का आना हश्र से कुछ कम न था
और जब पलटे क़यामत ढा गए
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वो पानी भरने चली इक जवान पंसारी
होता नहीं ज़ौक़-ए-ज़िंदगी कम
एक नज़्म
ज़िक्र-ए-मिर्रीख़-ओ-मुश्तरी के साथ
मुझ को दुश्मन के इरादों पे भी प्यार आता है
मर जाता हूँ जब ये सोचता हूँ
खड़खड़ाती डोल वो धम से कुएँ में गिर गई
मुझे तलाश करो
शाम को सुब्ह-ए-चमन याद आई
मैं कश्ती में अकेला तो नहीं हूँ
दश्त-ए-वफ़ा
अक़ीदे