वो पानी भरने चली इक जवान पंसारी
वो गोरे टख़नों पे पाज़ेब छनछनाती है
ग़ज़ब ग़ज़ब कि मिरे दिल की सर्द राख से फिर
किसी की तपती जवानी की आँच आती है
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सावन की ये रुत और ये झूलों की क़तारें
पा कर भी तो नींद उड़ गई थी
मिरे ख़ुदा ने किया था मुझे असीर-ए-बहिश्त
ढलान
अपने माहौल से थे क़ैस के रिश्ते क्या क्या
तू बिगड़ता भी है ख़ास अपने ही अंदाज़ के साथ
उस वक़्त का हिसाब क्या दूँ
तिरी ज़ुल्फ़ें हैं कि सावन की घटा छाई है
जन्नत मिली झूटों को अगर झूट के बदले
वो सब्ज़ खेत के उस पार एक चटान के पास
फ़न
किस तवक़्क़ो पे किसी को देखें