वो सब्ज़ खेत के उस पार एक चटान के पास
कड़कती धूप में बैठी है एक चरवाही
परे चटान से पगडंडियों के जालों में
भटकता फिरता है वो एक नौजवाँ राही
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गीत
मर जाता हूँ जब ये सोचता हूँ
अंदाज़ हू-ब-हू तिरी आवाज़-ए-पा का था
'नदीम' जो भी मुलाक़ात थी अधूरी थी
जाने कहाँ थे और चले थे कहाँ से हम
मैं कश्ती में अकेला तो नहीं हूँ
मैं वो शाएर हूँ जो शाहों का सना-ख़्वाँ न हुआ
गोरे हाथों में ये धानी चूड़ियों की आन-बान
तू ने यूँ देखा है जैसे कभी देखा ही न था
इक उम्र के ब'अद मुस्कुरा कर
तुझे खो कर भी तुझे पाऊँ जहाँ तक देखूँ