अंदाज़ हू-ब-हू तिरी आवाज़-ए-पा का था
देखा निकल के घर से तो झोंका हवा का था
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आग़ोश में महकोगे दिखाई नहीं दोगे
शाम को सुब्ह-ए-चमन याद आई
फिर भयानक तीरगी में आ गए
गोरे हाथों में ये धानी चूड़ियों की आन-बान
अजीब रंग तिरे हुस्न का लगाव में था
नया साल
मुमकिन है फ़ज़ाओं से ख़लाओं के जहाँ तक
जब तिरा हुक्म मिला तर्क मोहब्बत कर दी
गीत
सुब्ह होते ही निकल आते हैं बाज़ार में लोग
एहसास में फूल खिल रहे हैं
जन्नत मिली झूटों को अगर झूट के बदले