अजब तज़ाद में काटा है ज़िंदगी का सफ़र
लबों पे प्यास थी बादल थे सर पे छाए हुए
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गली के मोड़ पे बच्चों के एक जमघट में
बूढ़े माँ बाप बिलकते हुए घर को पलटे
मुदावा हब्स का होने लगा आहिस्ता आहिस्ता
गो मिरे दिल के ज़ख़्म ज़ाती हैं
तदफ़ीन
अपने माहौल से थे क़ैस के रिश्ते क्या क्या
कभी न पलटेगी बीती हुई घड़ी लेकिन
दावर-ए-हश्र मुझे तेरी क़सम
दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता
कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा
मैं हूँ या तू है ख़ुद अपने से गुरेज़ाँ जैसे
जिसे हर शेर पर देते थे तुम दाद