जिसे हर शेर पर देते थे तुम दाद
वही रंगीं-नवा ख़ूनीं-नवा है
अब इन रंगों के नीचे धीरे धीरे
लहू का एक दरिया बह रहा है
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वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे
अंदाज़ हू-ब-हू तिरी आवाज़-ए-पा का था
अजब तज़ाद में काटा है ज़िंदगी का सफ़र
फ़रेब खाने को पेशा बना लिया हम ने
मैं ने इस दश्त की वुसअत में शबिस्ताँ पाए
मरूँ तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊँ
आँख खुल जाती है जब रात को सोते सोते
एहसास में फूल खिल रहे हैं
भरी दुनिया में फ़क़त मुझ से निगाहें न चुरा
मैं कश्ती में अकेला तो नहीं हूँ
गीत