फ़रेब खाने को पेशा बना लिया हम ने
जब एक बार वफ़ा का फ़रेब खा बैठे
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यकसाँ हैं फ़िराक़-ए-वस्ल दोनों
ढलान
हम दिन के पयामी हैं मगर कुश्ता-ए-शब हैं
बूढ़े माँ बाप बिलकते हुए घर को पलटे
इक मोहब्बत के एवज़ अर्ज़-ओ-समा दे दूँगा
वो सब्ज़ खेत के उस पार एक चटान के पास
कुछ खेल नहीं है इश्क़ करना
तिरी ज़ुल्फ़ें हैं कि सावन की घटा छाई है
ख़ुद को तो 'नदीम' आज़माया
ये भी क्या चाल है हर गाम पे महशर का गुमाँ
अब तो शहरों से ख़बर आती है दीवानों की
मैं कश्ती में अकेला तो नहीं हूँ