कुछ खेल नहीं है इश्क़ करना
ये ज़िंदगी भर का रत-जगा है
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जब तिरा हुक्म मिला तर्क मोहब्बत कर दी
तेरी महफ़िल भी मुदावा नहीं तन्हाई का
मैं किसी शख़्स से बेज़ार नहीं हो सकता
एक नज़्म
बूढ़े माँ बाप बिलकते हुए घर को पलटे
मुमकिन है फ़ज़ाओं से ख़लाओं के जहाँ तक
मुझ को दुश्मन के इरादों पे भी प्यार आता है
वक़्त
रूह लबों तक आ कर सोचे
हिकमत-ए-अहल-ए-मदरसा का ग़ुरूर
मर जाता हूँ जब ये सोचता हूँ
मुसाफ़िर ही मुसाफ़िर हर तरफ़ हैं