ख़ुद को तो 'नदीम' आज़माया
अब मर के ख़ुदा को आज़माऊँ
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मैं हूँ या तू है ख़ुद अपने से गुरेज़ाँ जैसे
अजब तज़ाद में काटा है ज़िंदगी का सफ़र
गिरती हुई बूँदें हैं कि पारे की लकीरें
हिकमत-ए-अहल-ए-मदरसा का ग़ुरूर
तेरी महफ़िल भी मुदावा नहीं तन्हाई का
वो तार के इक खम्बे पे बैठी है अबाबील
मैं किसी शख़्स से बेज़ार नहीं हो सकता
क़लम दिल में डुबोया जा रहा है
उम्र भर उस ने इसी तरह लुभाया है मुझे
गली के मोड़ पे बच्चों के एक जमघट में
हर लम्हा अगर गुरेज़-पा है
तू बिगड़ता भी है ख़ास अपने ही अंदाज़ के साथ