कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समुंदर में उतर जाऊँगा
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अब तो शहरों से ख़बर आती है दीवानों की
होता नहीं ज़ौक़-ए-ज़िंदगी कम
चाँद उस रात भी निकला था मगर उस का वजूद
यूँ तो पहने हुए पैराहन-ए-ख़ार आता हूँ
इंफ़िसाल
भरी दुनिया में फ़क़त मुझ से निगाहें न चुरा
वो तार के इक खम्बे पे बैठी है अबाबील
हर लम्हा अगर गुरेज़-पा है
गुलों में रंग तो था रंग में जलन तो न थी
साँस लेना भी सज़ा लगता है
मुझे तलाश करो
पा कर भी तो नींद उड़ गई थी