गुलों में रंग तो था रंग में जलन तो न थी
महक में कैफ़ तो था कैफ़ में जुनूँ तो न था
बदल दिया तिरे ग़म ने बहार का किरदार
कि अब से क़ब्ल चमन का मिज़ाज यूँ तो न था
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पस-ए-आईना
बीसवीं सदी का इंसान
इक मोहब्बत के एवज़ अर्ज़-ओ-समा दे दूँगा
तुझ से किस तरह मैं इज़हार-ए-तमन्ना करता
लोग कहते हैं कि साया तिरे पैकर का नहीं
मैं ने इस दश्त की वुसअत में शबिस्ताँ पाए
यकसाँ हैं फ़िराक़-ए-वस्ल दोनों
कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा
ख़ुद को तो 'नदीम' आज़माया
एहसास में फूल खिल रहे हैं
एक नज़्म
दुआ