वो तार के इक खम्बे पे बैठी है अबाबील
उड़ने के लिए देर से पर तोल रही है
जिस तरह मिरे इश्क़ की टूटी हुई कश्ती
उम्मीद के साहिल पे खड़ी डोल रही है
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हम कभी इश्क़ को वहशत नहीं बनने देते
इक सफ़ीना है तिरी याद अगर
हम उन के नक़्श-ए-क़दम ही को जादा करते रहे
शुऊर में कभी एहसास में बसाऊँ उसे
उम्र भर संग-ज़नी करते रहे अहल-ए-वतन
एक नज़्म
वो सब्ज़ खेत के उस पार एक चटान के पास
हम दिन के पयामी हैं मगर कुश्ता-ए-शब हैं
रुख़्सार हैं या अक्स है बर्ग-ए-गुल-ए-तर का
इक मोहब्बत के एवज़ अर्ज़-ओ-समा दे दूँगा
शाम को सुब्ह-ए-चमन याद आई
गोरे हाथों में ये धानी चूड़ियों की आन-बान