'नदीम' जो भी मुलाक़ात थी अधूरी थी
कि एक चेहरे के पीछे हज़ार चेहरे थे
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नया साल
दिलों से आरज़ू-ए-उम्र-ए-जावेदाँ न गई
वो सब्ज़ खेत के उस पार एक चटान के पास
जब चटानों से लिपटता है समुंदर का शबाब
गिरती हुई बूँदें हैं कि पारे की लकीरें
यूँ बे-कार न बैठो दिन भर यूँ पैहम आँसू न बहाओ
शुऊर में कभी एहसास में बसाऊँ उसे
एक नज़्म
रूह लबों तक आ कर सोचे
मैं वो शाएर हूँ जो शाहों का सना-ख़्वाँ न हुआ
ख़ुद को तो 'नदीम' आज़माया
बीसवीं सदी का इंसान