सावन की ये रुत और ये झूलों की क़तारें
उड़ती हुई ज़ुल्फ़ों पे मचलती हैं फुवारें
मैं सुब्ह से नद्दी के किनारे पे खड़ा हूँ
मल्लाह कहाँ हैं जो मुझे पार उतारें
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आज की रात भी तन्हा ही कटी
साँस लेना भी सज़ा लगता है
किस तवक़्क़ो पे किसी को देखें
यूँ तो पहने हुए पैराहन-ए-ख़ार आता हूँ
हम उन के नक़्श-ए-क़दम ही को जादा करते रहे
एक नज़्म
अजीब रंग तिरे हुस्न का लगाव में था
वो दूर झील के पानी में तैरता है चाँद
महफ़िल-ए-शब
मुसाफ़िर ही मुसाफ़िर हर तरफ़ हैं
पत्थर
रेस्तोराँ