ईद का दिन है फ़ज़ा में गूँजते हैं क़हक़हे
झूलती हैं लड़कियाँ झूलों पे गाती हैं मल्हार
मेरा झूला जिस से हैं लिपटे हुए सरसों के फूल
देखता है एक नुक्कड़ को लपक कर बार बार
Rahat Indori
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उम्र भर उस ने इसी तरह लुभाया है मुझे
मर जाता हूँ जब ये सोचता हूँ
रूह लबों तक आ कर सोचे
क़यामत
मुझे मंज़ूर गर तर्क-ए-तअल्लुक़ है रज़ा तेरी
हम कभी इश्क़ को वहशत नहीं बनने देते
एक नज़्म
ये फ़ज़ा, ये घाटियाँ, ये बदलियाँ ये बूंदियाँ
कभी न पलटेगी बीती हुई घड़ी लेकिन
वो पानी भरने चली इक जवान पंसारी
दावा तो किया हुस्न-ए-जहाँ-सोज़ का सब ने
उस वक़्त का हिसाब क्या दूँ