ये फ़ज़ा, ये घाटियाँ, ये बदलियाँ ये बूंदियाँ
काश इस भीगे हुए पर्बत से लहराती हुई
धीरे धीरे नाचती आए सुबूही और फिर
घुल के खो जाए कहीं मेरी ग़ज़ल गाती हुई
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रेस्तोराँ
अंदाज़ हू-ब-हू तिरी आवाज़-ए-पा का था
क़लम दिल में डुबोया जा रहा है
लम्हा
आँसुओं में भिगो के आँखों को
गुलों में रंग तो था रंग में जलन तो न थी
वक़्फ़ा
गाएँ डकराती हुई पगडंडियों पर आ गईं
अपने माहौल से थे क़ैस के रिश्ते क्या क्या
मुझे तलाश करो
तुझे खो कर भी तुझे पाऊँ जहाँ तक देखूँ
गली के मोड़ पे बच्चों के एक जमघट में